काश
हिय प्रांगण वीरान न होता
पीड़ा का मुझे भान न होता
कल्पनाओं को पंख न लगते
अभिव्यक्ति उन्मान न होता
नैनों से काजल न बहता
स्वप्न कोई पलकों पे रहता
न टूटी मन तारें होती
न यों नित तकरारे होती
मुस्काने को मुझ पाधर के
होंठ अगर ये हिले न होते
फूल अधूरी आशाओं के
मरुमि पर खिले न होते
काश
हमें तुम मिले न होते
९ अक्तूबर २००५ |