मन का मनका
लो बिखर पड़ी अश्रु लड़ियाँ
जो टूट गया मन का मनका
मैं किलक उठा न जाने क्यों
बदली की आकुल बोली से
भाव कली बिखरा दीं पथ पर
चुन-चुन कर हिय झोली से
मन व्याकुल कर गया मेरा
वह बुरी तरह रोना घन का
लो बिखर पड़ी अश्रु लड़ियाँ
जो टूट गया मन का मनका
वो पलक बिछाए बैठी थी
पथ में मेरे जाने कब से
मन चाहा कंचन काया वो
बढकर बाहों में भर लाऊँ
कर लूँ उसको मैं आत्मसात
उसके गेसू मैं सहलाऊँ
पर रोक लिया सहसा खुद को
जब ख्याल मुझे आया जग का
लो बिखर पड़ी अश्रु लड़ियाँ
जो टूट गया मन का मनका
२४ अप्रैल २००६ |