अनुभूति में संगीता
मनराल की
रचनाएँ-
छंदमुक्त में-
अनकही बातें
खिड़कियाँ
दायरे
बरगद
बारह नंबर वाली बस
यादें
काश
बड़ी हो गई हूँ मैं
मुठ्ठी में जकड़ा वक्त
माँ
मेरे गाँव का आँगन
रात में भीगी पलकें
वे रंग |
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मेरे गाँव का
आँगन
आज भी याद आता है मुझे
मेरे गाँव का वो आँगन
जो अपने में समेटे हुए था
हमारी अठखेलियों को
जो हँसता था हमारी ही हँसी पर
देखा करता था हमें
उछलते-कूदते
जो सुनता था
माँ के पुकारने की आवाज
और
मुंडेर पर बैठे
कौओं की काँव-काँव
वो आज
सूना-सा पड़ा है
और याद करता है
अपने वही यौवन के दिन
जो बिताए थे
हमारे साथ
बचपन में
आज बरसों बाद सोचती हूँ मैं
अपना बचपन और उसका यौवन
सब कुछ स्वप्न-सा ही था
कहीं मैं भी न सूनी हो जाऊँ
अपने गाँव के आँगन की तरह।
९ जुलाई २००४
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