अनुभूति में संगीता
मनराल की
रचनाएँ-
छंदमुक्त में-
अनकही बातें
खिड़कियाँ
दायरे
बरगद
बारह नंबर वाली बस
यादें
काश
बड़ी हो गई हूँ मैं
मुठ्ठी में जकड़ा वक्त
माँ
मेरे गाँव का आँगन
रात में भीगी पलकें
वे रंग |
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बरगद
याद
आ रहा है आज
वो बरगद का पेड़
और
उसकी छाँव में
कच्ची मिट्टी से बना
छोटा मंदिर
जो हमेशा
बरसात में
काई से जड़ा
कोनों से
हरा हो जाता था
माँ-पपा की डांट
की शिकायत करने
मैं अक्सर
वहीं जाती थी
याद है मुझे
माँ उन महीनों में
आने वाले हर व्रत
के दिन
भगवान के साथ
उस बरगद को भी
पूजती थी
और
उस बरगद का तना
लाल पीले धागों से लिपटा
बहुत सुंदर लगता था
१ अप्रैल २००६
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