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अनुभूति में संगीता मनराल की
रचनाएँ-
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काश
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माँ
मेरे गाँव का आँगन
रात में भीगी पलकें
वे रंग

 

काश

मेरी आत्मा से एक
चीख निकलती है जब
देखती हूँ उन्हें जो...
सर्द हवा के झोंकों में
एक फटी-सी चादर
अपने तन से लपेटे
कंक्रीट के सख्त फुटपाथों पर
सोने की नाकाम कोशिश में हैं...
उन्हें जो...
भूखे पेट-आँखें खोले
सूने आसमान को निहारते
अपने उस भगवान को याद करते हैं
जिसने उन्हें जन्म दिया
और-
अनाथ-अबोध बच्चों को
जिन्हें ममता का एक
टुकड़ा आँचल भी
दुबकने को न मिला
मेरी इसी अंतरात्मा की चीख से
जन्म लेता है एक
'काश'
जो कर देता है छिन्न-भिन्न मुझे
मैं सोचने लगती हूँ
कि काश-ये 'काश' न होता तो
शायद कोई उदास न होता...

९ जुलाई २००४

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