अनुभूति में संगीता
मनराल की
रचनाएँ-
छंदमुक्त में-
अनकही बातें
खिड़कियाँ
दायरे
बरगद
बारह नंबर वाली बस
यादें
काश
बड़ी हो गई हूँ मैं
मुठ्ठी में जकड़ा वक्त
माँ
मेरे गाँव का आँगन
रात में भीगी पलकें
वे रंग |
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खिड़कियाँ
मैं अनजान था
शायद
मेरी दुनिया के घरों की
खिड़कियों पर हमेशा
एक झीना- रूपहला
परदा टंगा रहता था
उसकी
दूसरी तरफ तुम्हारी छवि
कुछ धुँधली
नज़र आने पर भी
मुझे पहचान में
आती रही
तुम अक्सर
किसी अप्सरा की तरह
अचानक से आकर
फिर
बोझिल हो जाती
और तब मैं उसे
अपनी नींद में
आने वाले किसी
सुखद सपने की तरह
भूलकर
फिर काम में लग जाता
मुझे याद है
शायद मैं ग़लत नहीं
ये सिलसिला
तब तक चला
जब तक उन
खिड़कियों पर
वो झीने रूपहले पर्दे थे
१ अप्रैल २००६
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