अनुभूति में संगीता
मनराल की
रचनाएँ-
छंदमुक्त में-
अनकही बातें
खिड़कियाँ
दायरे
बरगद
बारह नंबर वाली बस
यादें
काश
बड़ी हो गई हूँ मैं
मुठ्ठी में जकड़ा वक्त
माँ
मेरे गाँव का आँगन
रात में भीगी पलकें
वे रंग |
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बड़ी हो गई
हूँ मैं
बड़ी हो गई हूँ मैं
उस दिन एहसास हुआ
जब चुपके से
अपने विवाह की बात सुनी
माँ और पापा से
शायद माँ ही कह रही थी कि
अब मैं बड़ी हो गई हूँ
मन में एक सवाल सा आया
आखिर बीता यह वक्त
जैसे रेत फिसल रहा हो हाथों से
लौट क्यों नहीं आते वो पल
जो बिताए थे मैंने यों हँस-हँस के...
अपने आपको निहारा मैंने
घर में लगे उस ढाई फुट के
आइने में
हाँ मैं शायद बड़ी हो गई...
सभी पहलुओं से-विचारों से
स्वभाव से और अन्दाज़ से-
आज आइने के सामने
उलझी हुई-सी मैं
अपने मन में एक टीस सी लिए हुई
यह सवाल करती हूँ-
क्यों नहीं पहुँच जाती मैं
दोबारा से अपने उस बचपन में
नहीं होना अभी मुझे बड़ा
९ जुलाई २००४
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