शहर कुछ शेर
जिन चराग़ों से बुर्ज़ुगों ने रौशनी की थी
उन्हीं चराग़ों से हम बस्तियाँ जलाते हैं।
मज़हबी दंगों ने मेरा शहर वीराँ कर दिया
एक आँधी सैकडों पत्ते उड़ाकर ले गई।
हमारे गाँव के सारे बुज़ुर्ग कहते हैं
बड़े शहरों में बहुत छोटे लोग रहते हैं।
गाँव से शहर में आए तो ये मालूम हुआ
घर नहीं दिल भी यहाँ पत्थरों के होते हैं।
कोशिश तो की बहुत मगर दिल तक नहीं पहुँचे
वो शहर के थे हाथ मिलाकर चले गए।
किसके दिल में है क्या अंदाज़ा नहीं मिलता है
शहर-ए-दीवार का दरवाज़ा नहीं मिलता है।
मर के वो अपने खून से तहरीर लिख गया
इक अजनबी को शहर में पानी नहीं मिला।
फूलों की न उम्मीद करो आके शहर में
घर में यहाँ तुलसी की जगह नागफनी है।
होटल का ताज़ा खाना भी स्वाद नहीं दे पाता है
माँ के हाथ की बासी रोटी मक्खन जैसी लगती है।
होठों पर मुस्कान समेटे दिल में पैनी आरी है
बाहर से भोले-भाले हैं भीतर से होशियारी है।
भूखे प्यासे पूछ रहे हैं रो-रो कर राजधानी से
कब तक हम लाचार रहेंगे आख़िर रोटी पानी से।
जब तक पैसा था बस्ती के सबके सब घर अपने थे
जब हाथों को फैलाया सबके दरवाज़े बंद मिले।
मशरूफ़ हैं सब, दौरे-तरक्की के नाम पर
कोई भी मेरे शहर में खाली नहीं मिलता।
16 जुलाई 2006
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