इच्छाएँ सारी
नित्य आत्महत्या करती हैं
इच्छाएँ सारी
आय अठन्नी खर्च रुपैया
इस महँगाई में
बड़की की शादी होनी है
इसी जुलाई में
कैसे होगा ? सोच रहा है
गुमसुम बनवारी
बिन फोटो के फ्रेम सरीखा
यहाँ दिखावा है
अपनेपन का विज्ञापन-सा
सिर्फ छलावा है
अपने मतलब की खातिर नित
नई कलाकारी
हर पल अपनों से ही सौ-सौ
धोखे खाने हैं
अंत समय तक फिर भी सारे
फर्ज निभाने हैं
एक अकेला मुखिया घर की
सौ ज़िम्मेदारी
६ सितबंर २०१० |