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अनुभूति में डॉ. तारादत्त निर्विरोध की रचनाएँ-

 

नए गीतों में-
एक अलग हाशिया
चितराम यादों के
शब्दों के पहरे
सुबह सुबह

गीतों में-
झरते हैं फूल-पात
थक गया हर शब्द
धूप की चिरैया
पानी का गीत
सुबह-सुबह

संकलन में-
ज्योतिपर्व- यादों के दीप
होली है- फागुन और बयार
 

 

थक गया हर शब्द

थक गया हर शब्द
अपनी यात्रा में,
आँकड़ों को जोड़ता दिन
दफ़्तरों तक रह गया।

मन किसी अंधे कुएँ में
खोजने को जल
काग़ज़ों में फिर गया दब,
कलम का सूरज
जला दिन भर
मगर है डूबने को अब।
एक क्षण कोई अबोली साँझ के
कान में यह बात आकर कह गया,
एक पूरा दिन, दफ़्तरों तक रह गया।

सुख नहीं लौटा
अभी तक काम से,
त्रासदी की देख गतिविधियाँ
बहुत चिढ़ है आदमी को
आदमी के नाम से।
एक उजली आस्था का भ्रम
फिर किसी दीवार जैसा ढह गया,
एक लंबी देह वाला दिन
दफ़्तरों तक रह गया।

८ सितंबर २००८

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