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शब्दों के पहरे
कुछ भी कहा जाता नहीं
अधरों की ढ्योढ़ी पर
शब्दों के पहरे हैं!
हँसने को हँसते हैं
जीने को जीते हैं
साधन-सुभीतों में
ज्यादा ही रीते हैं
बाहर से हहरे हैं
भीतर के घाव मगर गहरे हैं!
भीड़ों की आँखों से
ढूँढते हैं कहीं कुछ
न आरोह, न अवरोह
हमको तो अपने प्रति
किए गए द्रोह से
अधिक रहा मोह।
पाहुन हैं दूर के
आए हैं, ठहरे हैं!
अपने भी आजकल
रहते न साथ
इतने विनम्र हैं
दृष्टि काटती जहाँ
जोड़ते हैं हाथ
सबके लिए गूँगे हैं
अपने लिए बहरे हैं!
१३ सितंबर २०१० |