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अंतिम पहर रात का
आओ ऐसा देश बनाएँ
पनघट छूट गया
बजता रहा सितार

गीतों में-
अरे जुलाहे तूने ऐसी
आँगन और देहरी

आरती का दीप
ओ फूलों की गंध
ओ मेरे गाँव के किसान
जिंदगी तुम मिली
जिंदगी गीत है
मन मंदिर में
राह में चलते और टहलते
सूत और तकली से


 

 

ओ फूलों की गंध

ओ फूलों की गंध उतरकर,
गीतों में आना
शब्द, रूप, रस-गंध उभकर,
बिम्ब बना जाना

रंग बिरंगी छटा बिखेरे,
चितवन में छाना
पुरवाई मे गन्ध लपेटे,
तन-मन महकाना
मंदिर की घण्टी के स्वर में,
शंख बजा जाना
ओ फूलों की गंध

नदी, झील, सागर से रिश्ता,
जोड़-जोड़ जाना
लहरों को तो आता केवल,
छोड़-छोड़ जाना
हवा लाँघकर चौखट देहरी,
चितवन सरसाना
ओ फूलों की गंध

किरण सिरहाने रख लहरों का,
पल में सो जाना
नौकाओं का चलते-चलते
औझल हो जाना
हंस युग्म का पोखर तरना,
मन में खो जाना
ओ फूलों की गंध

२ जुलाई २०१२

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