अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

अनुभूति में सुरेन्द्र शर्मा की रचनाएँ—

नई रचनाओं में-
अंतिम पहर रात का
आओ ऐसा देश बनाएँ
पनघट छूट गया
बजता रहा सितार

गीतों में-
अरे जुलाहे तूने ऐसी
आँगन और देहरी

आरती का दीप
ओ फूलों की गंध
ओ मेरे गाँव के किसान
जिंदगी तुम मिली
जिंदगी गीत है
मन मंदिर में
राह में चलते और टहलते
सूत और तकली से

 

अंतिम पहर रात का

अंतिम पहर
रात का, घर के द्वारे खोल गया।
सूरज उगता देख, समय का पंछी बोल गया।

धूप उतर आई
खेतों में, चमकी हरियाली।
तरुवर के पत्तों ने हँसकर, पीटी तब ताली।
जलक्रीड़ा करता सागर में, हंसा बोल गया।
सूरज उगता देख, समय का
पंछी बोल गया।

डैनों से निकली
चिड़िया, फिर दाना लाने को।
खगकुल डाली-डाली बैठा, गाना गाने को।
उषा का कँगना खनका और, झुमका डोल गया।
सूरज उगता देख, समय का
पंछी बोल गया।

लगी चमकने
बूँद ओस की, झूम उठी डाली।
नववधु जैसी चली प्रभंजन, होकर मतवाली।
सूरज वसुधा के माथे पर, कुमकुम ढ़ोल गया।
सूरज उगता देख, समय का
पंछी बोल गया।

२८ अप्रैल २०१४

चिट्ठी लिखना भूले

चिट्ठी लिखना भूले तब से
चला नेट-मोबाईल जब से।
संदेशे ईमेलें लातीं
नहीं डाकिये आते कब से।

डाक कोरियर से ही आती
जो भी
आती वो शरमाती।
अब हरकारे दिखेँ कहाँ से
दूर हुए बच्चे हैं माँ से
यह डाकिया क्या होता है
बच्चे पूछ
रहे हैं सबसे।

भाव भूलकर
भटक रहे हम
खेल रहे हैं जज्बातों से।
आओ फिर से लिखे चिट्ठियाँ
अपनो को मन भावन अब से।


4


शब्द के घाट आया करो।
गीत लहरों के गाया करो।
तैरती हैं यहाँ सीपियाँ
चुनके मोती उठाया करो।

साँझ में आरती को सजा
दीप धर के बहाया करो।
भावनाओं के दीपक जला
कल्पनाएँ सजाया करो

यहाँ शब्दों के मेले लगे
अक्षरों को मिलाया करो।
बैठकर दूर तक नाव में
प्रीत के पार जाया करो।

गहरे तल में उतरकर यहाँ
डुबकियाँ भी लगाया करो।
जोड़कर सीपियाँ प्रीत कमी
गीतमाला बनाया करो।

6

कितने आगे निकल गये हम,
पनघट छूट गया।
याद गाँव की बहुत सताई
मनघट टूट गया।

शहरों के जंगल में कोई
अपना नहीं मिला।
देख देखकर खुश होता वह,
अब ना कहीं मिला।
दूर हुआ अपनी माटी से
घट-घट फूट गया।

खटिया और चौपाल
खो गई, कहीं तन्हाई में।
फूट-फूटकर आँखें रोईं
सदा जुदाई में।
भरा हुआ पानी का मटका
धम्म से छूट गया।

नीम-निबौली,पीपल बरगद
सबके सब अपने।
देखे थे वो खुली आँख से
बचपन में सपने।
सोन चिरैया, मैना, तोता
पपीहा रूठ गया।

छूट गये सब पोखर झरने
मंदिर ताल तलैया।
बड़े दिनों में आती दादी
लेती खूब बलैया।
मिट्टी छूटी, चिट्ठी छूटी
सपना टूट गया।

2
आओ ऐसा देश बनायें
आओ ऐसा देश बनायें
जहाँ गरीबी टिक ना पाये।
कोई भी भूखा ना सोये
रोजगार सबको मिल जाये।

सोने की फसलें खनके औ'
हम सोना बनकर दिखलायें।
मन में लालच नहीं किसी के
ऐसा हिन्दुस्तान बनायें।

नेता नहीं भ्रष्ट हो अपने
सच हो सबके मनके सपने।
आशाओं के इन्द्रधनुष बन
सच्चा लोकतंत्र हम लायें।

सब हाथों को काम मिले औ'
इक दूजे का हाथ बँटाएँ।
नदियों से जोड़े नदियों को
सबके घर तक सड़के जायें।

बिजली पानी मिले सभी को
कोई ना वंचित रह पाये।
सुविधाएँ सब मिलें सभी को
श्रम का बीच मंत्र हो जायें।

अनपढ़ कोई रहे नहीं अब
साक्षरता की अलख जगायें।
शिक्षा ऐसी हो हम सब की
अच्छे जो इन्सान बनाये।

अपराधों की जगह नहीं हो
हिंसा भी मन में ना लायें
ऐसे पौधें रोपें मन में
राम राज्य की फसल उगायें।

3


इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter