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अनुभूति में राजा अवस्थी की रचनाएँ-

नई रचनाओं में-
अब नहीं होते हृदय के तार झंकृत
आलमशाह हुए
उम्र भर बढ़ता रहेगा
छितरी छाँव हुआ

पहले ही लील लिया

गीतों में-
आस के घर

कुछ तेरी कुछ मेरी
खेतों पर उन्नति के बादल
छाँव की नदी
झेल रहे है

मन बसंत टेरे
राम रतन
संबंधों के महल
सपनों का संसार
हृदय की सुकुमार काया

 

आस के घर

आस के घर जिन्‍दगी भर
सँजोए रखना कठिन है
बहुत प्रतिरोधी हवाएँ चल रहीं

बन्‍द मुट्‌ठी रेत वाली
नदी के भीतर
सामने से जा रहा है
समय का तीतर
और गहराया अँधेरा
चेतना के पट्‌ट पर
दिग्‍भ्रमित करती दिशाएँ छल रहीं

वन समितियों को पता
वन कट रहे
पता है जिसके लिये
पुल पट रहे
विषैला काला धुँआ
परिवेश बनता जा रहा
आस जिनसे थीं प्रभाएँ जल रहीं

२३ जनवरी २०१२

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