अनुभूति में
ओम प्रभाकर
की रचनाएँ
नई रचनाओं में-
इस क्षण
जैसे जैसे घर नियराया
डूब गया दिन
यह समय
झरता हुआ
यहाँ से भी चलें
गीतों में-
रातें विमुख दिवस बेगाने
रे मन समझ
सरोवर है श्वसन में
हम भी दुखी तुम भी दुखी
हाथों का उठना
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यहाँ से भी
चलें
चलें, अब तो यहाँ से भी चलें।
उठ गए
हिलते हुए रंगीन कपड़े
सूखते।
(अपाहिज हैं छत-मुँडेरे)
एक स्लेटी सशंकित आवाज़
आने लगी सहसा
दूर से।
चलें, अब तो पहाड़ी उस पार
बूढ़े सूर्य बनकर ढलें।
पेड़, मंदिर, पंछियों के रूप।
कौन जाने
कहाँ रखकर जा छिपी
वह सोनियातन
करामाती धूप।
चलें, अब तो बन्द कमरों में
सुलगती लकड़ियों-से जलें।
१३ जनवरी २०१४
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