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साँसें
शिथिल हुई जाती हैं
साँस-साँस
गिन-गिन कर निरूपम
साँसें शिथिल हुई जाती हैं
एक बार भर आँख निहारो,
सारे जनम
यहीं हम जी लें
गंधवाहिनी बाँध न पाई
उपवन-उपवन मैं हो आई
जरा-मरण के
द्वारे केवल
गीतों की रह गई कमाई
पोर-पोर
पड़ गए फफोले
रिस-रिस रीत गई हूँ पूरी
एक बार यदि छू भर देते,
शत-शत जनम
यहीं हम जी लें
बचपन खिला पराए आँगन
यौवन के घर ली अँगड़ाई
रेखाएँ भूगोल
हो गई
खोज-खोज आँखें पथराईं
बिखर-बिखर
सब गए घरौंदे
सपने रेत-रेत हो आए
हाथ थाम लेते यदि पल भर
सारे करम
यहीं तय जी लें
२७ अगस्त २०१२ |