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मत उठाओ
उँगलियाँ अब
मत उठाओ उँगलियाँ अब गीत की इस
दैन्यता पर
सहज मिल पाते कहाँ हैं सर्जना के
एक दो पल
लहलहाती ही रही हैं
प्राण में सुधियाँ अबोई
भर रही नर्तन शिरा में
प्रीति-वाही लहर कोई
क्या कहीं ’नीहार‘ सा होगा कभी शीतल सवेरा
ब्हुत दुलर्भ हैं यहाँ अभिव्यन्जना के
एक दो पल
थम गई है पतं की
वह मधुबनी यायावरी भी
केश खोले घूमती है
शब्द की अब शाम्बरी भी
कौन है ऐसा भगीदथ गीत की गंगा बहा दे
अश्रु में अवशेष बस अर्म्यथना के
एक दो पल
गीत तो पीड़ा-प्रसव
दैनिन्दनी खाता नहीं है
यह अयाचित दर्द है जो
प्राण सह पाता नहीं है
प्रश्न बन-बन पूछती है कनुप्रिया, कामायनी अब
क्या मिलेंगे फिर कभी अनुरंजना के
एक दो पल
२७ अगस्त २०१२ |