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क्षोभ नहीं
पीड़ा ढोयी है
क्षोभ नहीं पीड़ा ढोयी है
अपनी इस अनजान उमर की
दुःख तो यही की इसके माथे,
भाग्यहीन का लगा डिठौना
जंग लगी थी कलम कि,
जिससे लिखी गई तकदीर हमारी
और व्यथा की पुरा-प्रक्रिया
स्वर्ण पन्न पर गई उतारी
खिन्न नहीं हूँ पड़ा मुझे है
कच्चे सम्बन्धों पर रोना
सुःख-दुःख की इस लुका-छिपी में
नियति सदा से अपराजित है
मेरे मौन-कोख का जाया,
आखर-आखर अभिशापित है
खेद नहीं है अनजाने ही
बनी नियति के हाथ खिलौना
कब चाहा था मैंने मेरे
द्वार रँगोली भी मुस्काएँ
देख द्वार हल्दी के थापे
मौसम की आँखे भर आएँ
क्षुब्ध नहीं हूँ कभी मुडेरे
काग न बोला, मना न टोना
२७ अगस्त २०१२ |