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दोष कहाँ संयम
का
मन का विश्वामित्र डिगा तो
दोष कहाँ संयम का इसमें
तन वैरागी हो जाता है
मन का होना बहुत कठिन है
अनहद नाद कहीं गूँजा तो
कहीं बजे नूपुन अलसाई
कहीं हुई पीड़ा मर्माहत
कहीं फुहारो की अँगढ़ाई
जिस दिन झूठा प्यार हो गया
वह युग का सबसे दुर्दिन है
सोचा था निर्लिप्त जियूँ पर
यह कैसा स्वप्निल है जीवन
लास्य रचाती रही उर्वशी
अंग-अंग मंत्रों का बन्धन
साँस-साँस में स्वर्ग तुम्हारी,
मेरा मन राधा-रूक्मिन है
जहाँ प्रकृति है पुरूष वहीं है
है सिद्धांत यही धरती का
इसी अपावन में पावनता
संयम-नियम अद्धैत-व्रती का
सत्यशील के इसी मंत्र का
मन पालन करता अनुदिन है
२७ अगस्त २०१२ |