केवल कोरे
कागज़ रंगना
केवल कोरे कागज़
रंगना
कविता कैसे हो सकती है
जहाँ कहीं
खूँख्वार अँधेरा
सूरज वहाँ उगाना है
कौर छिन रहा जिन के मुँह से
उनको कौर दिलाना है
शंखनाद को सुनसुन करके
जनता कैसे सो सकती है?
पलपल बदल रही
दुनिया की
धड़कन सुनना बहुत जरूरी
उग्रवाद बाजारवाद की
चालें गुनना बहुत जरूरी
बम बारूद बिछी घर आँगन
सुविधा कैसे हो सकती है?
कल-कल कल-कल
-गाते गाते
पग-पग, पल-पल, आगे बढ़ना
दूर-दूर पुलिनों का रहकर
योग साधना में रत रहना
युग युग ने सौपीं सौगाते
सरिता कैसे खो सकती है?
छीज रही शब्दों
की वीणा
फटे बाँस की मुरली जैसी
जड़ जमीन से उखड़ी भाषा
पकी-अधपकी खिचड़ी जैसी
भानुमती का कुनबा हो तो
गीत गजल क्या हो सकती है?
--११
जनवरी २०१०
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