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यादों के हंस

स्वप्न आते हैं तुम्हारे इस तरह
आ रहे हो हंस पर्वत-पार से उड़ उड़

बोझ बन दीवानगी के क्षण
रोकते हैं चेतना के द्वार
झुलसती आती तुम्हारी याद
एक लू सी देह का संसार

जिन्दगी भीगे हुए क्षण को
नव वधू सी देखती मुड़ मुड़

सरसराहट पीर की पाती नहीं
ठहरने का कहीं भी नव स्थान
दौड़ता था जो कि तन में प्रेम बन
रक्त बन होने लगा निष्प्राण

कौन है जो आज भी भीतर
कसमसाता टूटता जुड़ जुड़

१५ मार्च २०१७
 

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