उस शहर से
उस शहर से इस शहर तक
हम कभी जीते कभी मरते रहे,
उस शहर से इस शहर तक,
हम सतत यायावरी करते रहे।
हर सफर में नए
चहरों से
धूप, छाँहों से मिला बिछुड़ा किये,
थके पंछी के परों से हम
कभी फैले तो कभी सुकड़ा किए।
राह के अनजान
मोड़ों पर
कभी सहमे तो कभी डरते रहे।
इंद्रधनुषी मेघ
हंसों को
खोज थी अमृत सरोवर की,
बर्फ की चादर रहे बुनते
छाँव में जलते सरोवर की।
साँस के रीते
सुधाघट को
हम सुरा या गरल से भरते रहे।
अब किसे जाकर
उलहना दें
हम न क्यों चम्पक, कमल, पाटल हुए?
किसी माली की निगाहों से-
रह गए क्यों हम अदेखे, अनछुए?
विजन के
निर्गन्ध किंशुक हम
वृन्त पर खिल धूल में झरते रहे।
७ सितंबर २००९ |