मैं तुम्हारी
लेखनी हूँ मैं तुम्हारी
लेखनी हूँ
मोर पंखों की बनी हूँ!
मिट चुकी है
भोज-पत्रों पर लिखी
मेरी कहानी
मैं जहाँ जन्मी
वहाँ के जेल
आश्रम, अरण्यानी
मैं न अब कादंबरी
कामायनी की उर्वशी हूँ!
कभी शाकुंतल
अंगुलियों से हुआ
अभिसार मेरा
क्यों किसी दुष्यंत ने
फिर भूलकर
मुझको न हेरा
मंत्र-मुद्रा में जड़ी मैं
एक हीरे की कनी हूँ!
श्लोक जो मैंने रचे थे
शब्द कोमल
काँच के थे
राख हो
बिखरे पड़े वे फूल
नीली आँच के थे
मैं मिलन की नर्मदा हूँ
विरह की गोदावरी हूँ!
शाप से पथरा गया है
चाँदनी में
छंद मेरा
कौन आँचल में
सहेजे माधवी
मकरंद मेरा
मैं प्रभंजन के वलय में
कल्पतरु की वल्लरी हूँ!
७ सितंबर २००९ |