अनुभूति में
देवेन्द्र शर्मा
इंद्र की रचनाएँ-
नए गीतों में-
मैं शिखर पर हूँ
साँझ के
कंधे पर
गीतों में-
अब भी जीवित मुझमें
उस शहर से
एक गाथा का समापन
जब जब भी झंझा
मैं तुम्हारी लेखनी हूँ
मैं
नवांतर
लौटकर घर
चलो खुसरो
हम जीवन के
महाकाव्य |
|
साँझ के कंधे पर
साँझ के
कंधे पर धर शीश,
उदासी बहुत बहुत रोई
अकेलेपन
की गूँगी नियति,
झेलती रही उजाड़ पहाड़,
किसी आने वाले के लिये,
रहे पलकों के
खुले किवाड़
धुँए ने
घिर कर चारों ओर,
दृष्टि में कड़वाहट बोई
काल की
वंशी की सुन टेर,
दिवस उड़ गया खोल कर पंख,
थिर हुए नीराजन के मंत्र,
गूजते रहे मौन
के शंख
अधूरेपन की
निष्ठुर शिला,
रात भर साँसों ने ढोई
समय का
घूमा ऐसा चक्र,
प्रीति बन गई असह परिताप,
तिमिर की धुँधलाई पहचान,
फला किस
दुर्वासा का शाप
मुद्रिका
परिणय की अंजान,
कहाँ, कब, कैसे क्यों खोई
कहाँ बिछड़े
वो आश्रम सखा,
पिता का छूटा पीछे गेह,
सत्य की परिणिति कैसी क्रूर,
स्वप्न हो गया
स्वजन का नेह
रंगमय
और हुई तसवीर,
आँसुओं ने जितनी धोई
साँझ के कंधे पर धर शीश,
उदासी बहुत बहुत रोई ८
फरवरी २०१० |