अब भी जीवित
मुझमें अब भी जीवित
मुझमें
ऋषियों की परंपरा
धूप-दीप-तुलसी दल
अक्षत-नैवेद्य भरा
मंद-मंद मुक्त छंद
मंत्रवती
गंगा की
धारा पर बहता हूँ दोना वटपत्र का!
फिर उदास संध्या के
देकर कुछ अनुभव
गहमा-गहमी वाला
बीत गया उत्सव
अब विद्वत् परिषद में
मैं ही हूँ
एक शेष
अनगाया विदा-गीत इस अंतिम सत्र का!
उलट गए कंचन घट
था जिनमें सुधा-सोम
चरु-सुरभित समिधाएँ
सब कुछ हो गया होम
अभिमंत्रित
अग्नि-चूड़
मंद्र-मलय, धूम्र-वलय
साक्षी है परम-व्योम खंडित नक्षत्र
का!
अब न यहाँ आएँगी
गायत्री किन्नरियाँ
घन केशों में गूँथे
नव रसाल-मंजरियाँ
क्या मुझे सहेजोगे
चंदन की
थाली में
एक बिंदु हूँ ऋतु के गंधित-मधुछत्र
का!
७ सितंबर २००९ |