अनुभूति में डॉ. अजय पाठक की
रचनाएँ- नए गीत-
उज्जयिनी में
कहो सुदामा
फागुन के दिन
जीने का अभ्यास
सौ-सौ चीते
गीतों में
अनुबंध
आदमखोर हवाएँ
कबिरा तेरी चादरिया
कुछ तेरे, कुछ
मेरे
गाँव
चारों धाम नहीं
चिरैया धीरे धीरे बोल
जीना हुआ कठिन
जोगी
दर्द अघोरी
पुरुषार्थ
बादल का पानी
भोर तक
मौन हो गए
यामिनी गाती है
सफलता खोज
लूँगा
समर्पित शब्द की रोली
हम हैं बहता पानी बाबा
संकलन में
नव
सुमंगल गीत गाएँ
महुए की डाली पर उतरा वसंत
बादल
का पानी
|
|
फागुन के दिन
कितनी जल्दी बीत गये ना !
यह फागुन के दिन।
अभी-अभी तो गदराई थी
महुए की डाली
जिसके रस में डूब गई थी
कोयल मतवाली
सेमल के फूलों से पछुआ
खेल रही थी।
ईमली ने बूटों की पहनी थी
कंचन बाली।
कल परसों तक गूँज रही थी
मादल की तक-धिन।
गौरेयों से भरी हुई थी
घर की बँसवारी
निशिगंधा से अटी पड़ी थी
पूरी फुलवारी
गेंदा और गुलाब- केतकी
बतियाते थे
भँवरों की गुंजार मची थी
क्यारी-क्यारी
तरह-तरह के भृंग-पतिंगे
कीट, शलभ अनगिन।
चना-मटर के संग खेलती
गेहूँ की बाली
पीले फूल खिले थे ऊपर
नीचे हरियाली
रस भर आया था गन्ने के
पोर-पोर में
पगड़ी पहने कुसुम खड़े थे
केसरिया लाली
सांध्यकाल में कुहरा छाता
धूसर और मलिन।
पतझर में पीपल के सारे
पत्ते टूटे थे
धीरे-धीरे नवपल्लव के
अँखुए फूटे थे
सजे हुए थे नीम, आँवला,
बरगद, शीशम
आमों की मंजरियों से रस
निर्झर छूटे थे
मन भूला था खुद के भीतर
का संताप कठिन।
कितनी जल्दी बीत गये ना !
यह फागुन के दिन।
१ अक्तूबर २०१२ |