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तेरा मेरा साथ
बदलाव
भ्रम
यह वादा करो

 

 

 

मोम की गुड़िया

मोम की गुड़िया
शीशे में लिपटी
मोम की गुड़िया
ब्याह कर आई,
बहुत लोगों की
आँखें भरमाईं,
कुछ की आँखें
अलोचनाओं,
प्रत्यालोचनाओं
के लिए उठीं।

कोमल,
शीशे-सी नाज़ुक
पारदर्शी,
संवेदनाओं से
पिघलती
जवानी
मुस्करा देती,
जब कोई कहता-
यह नारीत्व का बोझ
कैसे सम्भाल पाएगी?

सूरज की तपिश,
चाँदनी की ठंडक,
सामाजिक बंधन,
मर्यादायों की बेड़ियाँ,
जीवन की चुनौतियाँ,
पारिवारिक ज़िम्मेदारियाँ,
कैसे उठा पाएगी?

वह बस हँस देती,
ममत्व ने जब
नारी बनाया,
सूर्य ने तपाया,
मर्यादायों ने उलझाया,
चुनौतियों ने रुलाया,
ज़िम्मेदारियों ने दबाया।

पुरुष रुपी मानव ने,
भावनायों के कंकरों
से बींध डाला--
शीशे में लिपटी
मोम की गुड़िया,
न पिघली,
न टूटी,
न बिखरी,
आँचल में बच्चे समेटे
मल्लिका रुपी पुरुष को
बदन से लिपटाये,
मज़बूत खड़ी
प्रश्न सूचक आँखों से
तकती रही...
वह कमज़ोर कहाँ है...?

३० नवंबर २००९

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