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अनुभूति में डॉ. सुधा ओम ढींगरा की रचनाएँ-

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कभी कभी
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  चाँदनी से नहाने लगी

हीर स्लेटी,
झाड़ियों को हटाती,
वृक्षों की ओट से
राँझे को निहारती,
पाजेब की झंकार दबाती
सुनहरी सालू से बदन ढाँपती,
हर बाधा पार करती
आँगन में खड़े राँझे की ओर
दबे पाँव, धीरे-धीरे
कदम थी बढ़ा रही।

राँझे ने,
उसके एहसास से ही
बाँहें फैला दीं,
हीर उनमें समाती गई
पूनम का चाँद
उनका मिलन देख
मुस्कराता रहा,
राँझा हीर में सिमटता रहा,
सुनहरी सालू
पूरी सृष्टि में फैलता गया,
अँधेरा चाँदनी में मिटता गया...
प्रकृति चाँदनी से नहाने लगी...

३० नवंबर २००९

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