भ्रम
शंकर को ढूँढ़ने चले
हनुमान मिल गए,
क्या-क्या बदल के रूप-
अनजान मिल गए।
एक दूसरे से पहले
दर्शन की होड़ में;
अनगिनत लोग रौंदते-
इनसान मिल गए।
माथे लगा के टीका
भक्तों की भीड़ में;
भक्ति की शिक्षा देते-
शैतान मिल गए।
अपने ही अंतर्मन तक
जिसने कभी भी देखा,
दूर दिल में हँसते हुए-
नादान मिल गए।
तोड़ा था पुजारी ने
मन्दिर के भरम को,
जब सिक्के लिए हाथ में-
बेईमान मिल गए।
कुछ रिसते झोपड़ों में
जब झाँक कर देखा,
मानुषी भेस में स्वयं-
भगवान मिल गए।
अपने को समझते हैं
जो ईश्वर से बढ़कर,
संसार को भी कैसे-कैसे-
विद्वान मिल गए।
किस पर करे विश्वास
आशंकित-सी सुधा,
देवता के रूप में जब-
हैवान मिल गए।
२२ दिसंबर २००८ |