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अनुभूति में जैनन प्रसाद की रचनाएँ—

छंदमुक्त में—
एक नारी
कैसे भुलाऊँ तुम्हें
खड़ाऊँ
गुरु दक्षिणा
चीर हरण
मछली
मेरा मन
रावण या राम

हास्य व्यंग्य में—
उठो जी
एक नेता
झूठ
बैठ जाओ

  उठो जी

एक पति
और पत्नी के
लड़ने का अजीब
ढंग था।
बर्तनों से एक–दूसरे
को मारने का जंग था।
दोनों चलाते शब्दों के
कठोर बाण।
प्लेटों का हवाओं में
करते आदान–प्रदान।
जब भी पत्नी के
निशाने में होती असफलता।
पति पोपले चहरे से
खिलखिला कर हँसता।
और जो पड़ जाती
दो या चार।
तो पत्नी के हृदय में
आनंद होता अपार।
उस पर भी
बढ़ाने को अपनी शान
कभी कहते–
हे ईश्वर!
हे भगवान!
कभी कोसते
एक–दूजे का खान–दान।
लेकिन!
अबकी झगड़े में
बात कुछ ज़्यादा बदल गई।
प्लेट से ही
प्लेट की दाँत
मुह से निकल गई।
समझौते की सारी
योजनाएँ विफल गई।
अब तो बस–
परची पर लिख कर ही बात
करते हैं।
न किसी से एक भी
बात कहते हैं न सुनते हैं।
शाम हो यह सवेरा
बने रहते एक–दूसरे से अज्ञात।
समझौते की एक भी
दिखती नहीं थी सुप्रभात।
एक दिन पति कि परची आई
पत्नी पढ़ कर मन ही मन मुस्कुराई।
लिखा था–
"मुझे कल सात
बजे जगा देना।
सात बजे न सही तो
छः बजे ऑफ़िस भगा देना।
करना है नये टेंडर पर काम।
वरना नये बॉस के सामने
हो जाऊँगा बदनाम।"
पति ने स्पष्ट रूपों से
किए थे भाव संकेत।
सर्वदा खाट पर गिरते ही
हो जाते थे सचेत।
पर दूसरे दिन–
जब खाट पर
उसने खोले अपने नयन।
घड़ी थी नौ बजाए
तब क्रोधित हुआ उसका तन–मन।
बोला–
यह मेरा घर नहीं!
है यह कुरुक्षेत्र!
और मैं हूँ अर्जुन।
यह मेरी पत्नी नहीं!
आज मुझको!
लगती यह दुर्योधन।
योद्धा की भाँति
जैसे ही फेंके उसने चादर–
उड़ती हुई एक परची से
वह दंग हो गए।
लिखा था–
"उठो जी! सात बज गए।"

१ फरवरी २००६

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