मछली
उधर चली जा रही थी
एक नाव।
इधर मंद पवन का बहाव।
रक्त मित्र का था प्रभात
क्षितिज में पक्षियों का
मृदु कोकिल गात।
नाव का अग्र करती
तरंगनी में तरंग
भागता जा रहा था
यह तुरी का तुरंग।
नाव के पीछे
उठ रहे थे उर्मि सतत।
धीरे–धीरे लहरें
हो जाते थे विसर्जित।
तभी दरिया से अचानक
एक मछली उछली।
चीर कर जल का हृदय
मानो गगन को छूने चली।
बदन के छीटों से जगमग
हुआ दरिया का आँगन।
सूर्य की किरणों सा था
सुर्ख उस मछली का बदन।
हवा में मीन का उछलना
किंचित छटपटाना।
क्षणिक का नृत्य
कठिन था स्मृति से मिटाना।
वह तिरछी फैल कर
वापस नदी में डूब गई।
तरंगे एक जगह से उठ कर
गोल–गोल दूर गई।
और उस उर्मि को सतत
चूमता रहा अंशुमाली।
नदी का प्रांगण अब
लगने लगा खाली–खाली।
आकर्षण केंद्र बन गई
कविता के लिए वह मछली
नाव चालक सोचा!
क्यों न मेरी नाव में उछली?
१ फरवरी २००६ |