झूठ
सच के पहिए
जब भी लग जाते हैं झूठ को
वह भागता है रफ्तार में सच से मुंह छुपाए।
न जाने फिर कब कहना पड़े एक और झूठ।
जिसे याद भी रखना होगा।
इसलिये
कि सच बोल कर हमें ध्यान में नहीं रखना है
कि हमने क्या–क्या कहा था।
मैं गुस्सा हो गया
मैंने अपने दोस्त से कहा–
"आज कल की पुलिस बहुत निखट्टू
और बेकार हो गई है।
नये ज़माने में
रह कर भी लाचार हो गई है।"
वह बोला– "सच है।
गुंडो और मंत्रियों का
आदर सत्कार करती है।
बेचारी अबला जनता से
व्यर्थ तकरार करती है।"
मैं फिर बोला– "हाँ!
कल ही एक पुलिस ने
पकड़ कर मेरा कॉलर
नाहक खींचा मुझे
टेलिफ़ोन बूथ से बाहर।"
पर क्यों–
अजी मैं अपनी गॅर्ल फ्रेंड से
बातें कर रहा था नयी पुरानी।
कुछ वो मुझको
कुछ मैं उनको सुना रहा था प्रेम कहानी।
हम दोनों के तन–मन में
बस प्रेम की अगन लगी थी।
गलती इतनी थी कि बाहर
एक लंबी लाइन लगी थी।
दोस्त बोला–
"तो क्या हुआ कि बाहर लंबी कतार है।
तुम्हें बातें करने का जन्म सिद्ध अधिकार है।
सच कहता हूँ!
अगर मेरा कॉलर पकड़ता कोई
तो मैं उसे मिटा देता।
पुलिस हो या नेता
मैं उसे धूल चटा देता।
खैर!
ज़रूरी नहीं कि
मेरे जैसे ही सभी हों।
एक सहनशीलता है तुम में
इसलिये तो तुम कवि हो।
उसकी बातें सुन कर मुझे भी आ गया ताव।
मैंने भी बदल कर कहा अपना हाव–भाव।
गुस्सा!
अजी गुस्सा मुझे भी आया।
लेकिन तब!
जब उसने मेरी गर्ल फ्रेंड को भी बाहर खींचा।
१ फरवरी २००६ |