एक नेता
एक हारा हुआ
नेता।
जिसे होना था
अबकी चुनाव में
विजेता।
पहुँचा किसी अज्ञात
गाँव में।
अपने इलेक्शन के
चाहत भरे दाँव में।
सोचा आज अपना नया
घोषणा पत्र सुनाऊँगा।
बड़े–बड़े वादे करके
लोगों को रिझाऊँगा।
चलाऊँगा कुछ ऐसा चक्कर।
मेरा भाषण उन्हें लगे जैसे शक्कर।
डालें मेरी झोली में वोट बेधड़क।
बन कर जैसे कोई घनचक्कर।
पर जनता भी थी होशियार
सह चुकी थी नेताओं के ऐसे वार।
पाँच–पाँच सालों पर ऐसा प्रचार
अबकी कर दिया इसका तिरस्कार।
जनता के नाम पर
बस था व्यक्ति एक।
पेशे में था गड़रिया
पर था बिल्कुल सरेख।
नेता बोला–
"भइया आइए
तशरीफ़ धरें।
जनता तो है नहीं
प्रचार करें या न करें?"
भइया बोला–
"हम तो एक मामूली
गड़रिया हैं
हमें क्या पता
ये इलेक्शन के दाँव।
हमें तो सुहाती है यह धरती
यह बकरे
और यह गाँव।
हाँ! पर इतना जानता हूँ
जब भी मैं जानवरों को
घास देने जाता हूँ
खूँटे पर चाहे हों जानवर अनेक।
या फिर चाहे हो
वहाँ बकरी सिर्फ़ एक।
मैं उस एक को भी
प्यार से चारा डालता हूँ।
एक–अनेक न होने पर मैं
नियम नहीं बदलता हूँ।"
नेता उनकी बातों से
प्रभावित हुए अपार।
लेकर मन में उमंग और
आनंद का बौछार।
भाषण करने लगे वे
मंच पर सीना तान।
घंटों बोलते रहे पर
तनिक न हुई थकान।
भाषण ख़त्म होते ही पूछा
कहो भइया कैसी रही?
मेरी योजनाएँ गाँव के
हित में हैं या नहीं।
भइया फिर बोला–
"हम तो एक मामूली
गड़रिया हैं
हमें क्या पता
ये इलेक्शन के दाँव।
हमें तो सुहाती है यह धरती
ये बकरे
और यह गाँव।
हाँ! पर इतना जानता हूँ
जब भी मैं जानवरों को
घास देने जाता हूँ
खूँटे पर चाहे हो जानवर अनेक।
या फिर चाहे हो
वहाँ बकरी सिर्फ़ एक।
मैं उस एक को भी
प्यार से चारा डालता हूँ।
एक–अनेक होने पर मैं
नियम नहीं बदलता हूँ।
लेकिन!
मैं जब भी खूटे पर
एक ही बकरी पाता हूँ।
सभी जानवरों का चारा
एक को नहीं खिलाता हूँ।"
१ फरवरी २००६ |