एक नारी
एक एक कर
एक नारी
कपड़े सुखा रही है तार पर।
कड़ी धूप में जूझती
कर्तव्य निभा रही है
घर परिवार पर।
जैसे पाँव पति का छूने को।
झुकती है कपड़े लेने को।
उठती है बेख़बर
एड़ियाँ पृथ्वी को छूकर
मानो तिलक पति का कर
फिर झुक जाती है नज़र।
माथे पर मोती आ रहे हैं नज़र
जो रहरह कर
टपकते हैं चहरे पर।
जिसे पोंछती हैं बाहें
कानों को रगड़ कर
जैसे ले रही हो अँगड़ाई
अपने साजन के छूने पर।
उसके इन कर्मों पर
सवाल कर रहा है आज
स्वयं दिनकर!
भला मुझे समदर्शी
क्यों बनाया?
इस संसार पर।
१ फरवरी २००६ |