खड़ाऊ
सौभाग्य कहो
या दुर्भाग्य
जूते पैरों में ही शोभते हैं।
महँगी से महँगी ही क्यों न हो
वह चरणों के तले ही पड़ते हैं।
पर मैं!
वह पुराना खड़ाऊ हूँ
जिसे कोई भी
पसंद नहीं करता
पहनने के काबिल हूँ
पर इस आधुनिक जुग में
इसे कोई रद्दी के काबिल नहीं समझता
पर मुझे फेंको मत!
न जाने दुनिया की
राजनीति से थक कर
न जाने दुनिया की
कुरीति से थक कर
कोई आज्ञाकारी! भरत!
श्रीराम का खड़ाऊ समझ कर
सिर पर बिठाकर
मुझे ले जाए!
तब मैं वही!
पुराना खड़ाऊ
उसकी पवित्र आकांक्षा के
सिंहासन पर बैठ कर
सम्मानित हो
अटल राज्य करूँगा!
१ फरवरी २००६ |