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१७. १२. २०१२

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आ गयी धूप

 

बिना कहे
चुपचाप आ गयी
ड्रॉइंग रूम में धूप !
रंग सुनहरा, पतली काया
और गुनगुना रूप !

ठिुठुरे-ठिठुरे हाथ-पैर हैं
साँसें भी ठण्डी,
तेज़ हवा के झौंके मचलें
कोहरे की मण्डी.
अंग-अंग में
सिहरन सरसे
नदी किनारे कूप !

बिना कहे चुपचाप आ गयी
ड्रॉइंग रूम में धूप !

नन्ही गौरैया भी फुदके
फुनगी पर पेड़ों के,
डरकर पीले खेत हो गये
बदले रंग मेड़ों के.
थर-थर काँपे
सरसों-गेहूँ
बना बाजरा भूप !

बिना कहे चुपचाप आ गयी
ड्रॉइंग रूम में धूप !

रोज़ तमकना
गुस्सा खाना भी, काफूर हुआ,
जल्दी घर को लौट पड़े
ज्यों घर भी दूर हुआ.
कैसे फटके
किरनें अम्मा ?
घर का टूटा सूप !

बिना कहे चुपचाप आ गयी
ड्रॉइंग रूम में धूप !

-डॉ. मुकेश कुमार अनुरागी

इस सप्ताह

गीतों में-

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डॉ. मुकेश श्रीवास्तव अनुरागी

अंजुमन में-

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कुमार विनोद

छंदमुक्त में-

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लालित्य ललित

कुंडिलियों में-

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अशोक रक्ताले

पुनर्पाठ में-

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लावण्या शाह

पिछले सप्ताह
१० दिसंबर २०१२ के अंक में

महेश अनघ के प्रति भावभीनी श्रद्धांजलि के साथ, उनके इक्कीस नवगीत-

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अहा बुद्धिमानों की बस्ती

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इति नहीं होती

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कुछ न मिला

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कौन है

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गुस्सा कर भौजी

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जब जब मेरी विश्वविजय

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तप कर के हम

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नहीं नहीं, भूकंप नहीं है

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थोड़ी अनबन और उदासी

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मुहरबंद हैं गीत

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मैराथन में है भविष्य

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शब्द शर वाले धनुर्धर

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शब्दों में सतयुग की खुशबू

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स्वर्णमृग लेने गए थे

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चैक पर लिख दूँ रकम

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पत्थर दिल दुनिया

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बटवारा कर दो ठाकुर

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मची हुई सब ओर खननखन

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मूर्तिवाला

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हम भी भूखे

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मेह क्या बरसा

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प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन¸ कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन

सहयोग : दीपिका जोशी

   
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