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अनुभूति में शशि पुरवार की रचनाएँ -

नये गीतों में-
गीतों में बहना
गुलाबी खत
नदी सी प्यास
व्यर्थ के संवाद
सहज युगबोध

गीतों में-
अब्बा बदले नहीं
कमसिन साँसें
कण-कण में बसी है माँ
जिंदगी को मिल गई है
जिंदगी जंगी हुई
जिंदगी हमसे मिली
तिलिस्मी दुनिया

देखा है लोगों को हमने
धुआँ धुआँ
थका थका सा
दफ्तरों से पल
भीड़ का हिस्सा नहीं हूँ
मनमीत आया है
महक उठी अँगनाई
याद की खुशबू
समय छिछोरा
व्यापार काला

हाइकु में-
ग्यारह हाइकु

संकलन में-
फूल कनेर का- नन्हा कनहल
ममतामयी- ममता की माँ धारा
          माँ शक्ति है माँ भक्ति है
          माँ का आशीष शुभ दुलार
वर्षा मंगल- नये शहर में
सूरज- आ गए जी
नयनन में नंदलाल- सुनें बाँसुरी तोरी
                मन हो जाए चंगा
नया साल- नये वर्ष की गंध
         उम्मीदें कुछ खास
         हौसलों के गीत गाओ
पिता की तस्वीर- याद बहुत बाबूजी आए
पेड़ नीम का- हर मौसम में खिल जाता है
मातृभाषा के प्रति- प्रिय हस्ताक्षर
               मातृभाषा के प्रति
मेरा भारत-       भारत को कहते थे
रघुनंदन वंदन- पावन धरती राम की
शुभ दीपावली- झूल रहे कंदील
            जगमगाती है दिवाली
            दीपावली हाइकु
हरसिंगार- हरसिंगार हाइकु
होली है- फागुन के अरमान
       होली आई री सखी

 

व्यर्थ के संवाद

कागजों पर ही सिमटकर
शेष हैं संभावनाएँ।
क्या करें शिकवा जहाँ से
मर गयीं संवेदनाएँ।

घात करते, लोग सारे
खून में डूबे हुए हैं
व्यर्थ के संवाद करते
आज मनसूबे हुए हैं।

रक्तरंजित हो गयीं हैं
आदमी की भावनाएँ

झूठ मक्कारी फरेबी
जब विजय का गीत गाते
सत्य की बुझती शमा, नित
छटपटाती थी अहाते।

हाथ में मदिरा लिए, फिर
मन लुभाती योजनाएँ।

आदमी ही संस्कृति के
खून का प्यासा हुआ है
शहर भर परचा छपा, फिर
फूल को किसने छुआ है

गंध से सम्बन्ध टूटे,
शूल सी दुर्भावनाएँ।
क्या करें शिकवा जहाँ से
मर गयी संवेदनाएँ।

१ जून २०१७
 

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