अनुभूति मेंM सौरभ
आर्य की रचनाएँ
खेल राजनीति
का
क्यों लाएँ बदलाव हम
मैं लिखूँगा
मेरी प्रयोगशाला
आँसू जो हैं सूख गए
चले हैं हम
होली
|
|
खेल राजनीति का
क्या तुम्हारे पास
शब्दों के जाल हैं
दो रंग के चेहरे
एक अच्छा एक्टर
और छोटा जमीर
हाँ तो फिर
एक मंच है
मंच जहाँ कोई
कैसा भी आए
बीच का रास्ता अपना लेता है
या फिर उस पार ही अपना आशियाँ बना लेता है
जिओ अपने लिए
और उनके लिए भी
या फिर उसका दिखावा करो
तिकड़म लगा किसी तरह खडे रहो
डर किस बात का
अगर पकड़े गए
तो भी भुला दिए जाओगे
जल्द ही फिर से
खुद को खड़ा पाओगे
हमें भी अपने अंधेपन का
एहसास नहीं होता
और तुम्हें भी खुद के कारनामों पर
विश्वास नहीं होता
ये खेल राजनीति का
क्या सचमुच है इतना गंदा
आभास नहीं होता
विश्वास नहीं होता
९ अक्तूबर २००४
|