अनुभूति में
कृष्ण कुमार
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वातायन
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तुम्हें जीता हूँ
परी
मरा हुआ बच्चा
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वातायन
खोल दो इन वातायनों को
आने दो खुली हवा
इस बंद कमरे में
मुझे घुटन-सी होती है।
मैं उड़ना चाहता हूँ
दूर कहीं
कोई मुझे पंख लाकर दे दे।
मैं बहना चाहता हूँ
नदी के अविरल जल की तरह
क्योंकि ठहरे हुए पानी में
सड़ांध की बू आती है।
मैं लिखना चाहता हूँ
वेदव्यास के गणेश की तरह
क्योंकि लेखनी ही वह ताकत है
जो व्यवस्था में क्रांति
पैदा कर सकती है।
कुँवारी किरणें
सद्य:स्नात-सी लगती हैं
हर रोज़ सूरज की किरणें।
खिड़कियों के झरोखों से
चुपके से अन्दर आकर
छा जाती हैं पूरे शरीर पर
अठखेलियाँ करते हुए।
आगोश में भर शरीर को
दिखाती हैं अपनी अल्हड़ता के जलवे
और मजबूर कर देती हैं
अंगड़ाइयाँ लेने के लिए
मानो सज धज कर
तैयार बैठी हों
अपना कौमार्यपन लुटाने के लिए।
२१ अप्रैल २००८
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