'विरहिन लगती
प्रकृति प्रिया` विरहिन
सी लगती प्रकृति प्रिया।
जाने किसने यह त्रास दिया।
प्रात: उठते ही रोती है।
आँसू लगते ओस सदृश।
उठती जो वाष्प सरोवर से
लगती इसकी आह विवश।
यह किसे दिखाए फटा हिया?
विरहिन-सी लगती प्रकृति प्रिया।
मध्याह्न ताप में दहती है।
मिलता न चैन इसको पल भर।
तन से गिरते जो स्वेदबिन्दु,
जलता शरीर जलता बिस्तर।
मिलता न कहीं भी ठौर ठिया।
विरहिन-सी लगती प्रकृति प्रिया।
जब साँझ चतुर्दिक घिरती है,
अंधकार में खो जाती यह।
तारों से अश्रु चमकते हैं,
जागी आँखों से सो जाती यह।
जाने किसने यह त्रास दिया
विरहिन-सी लगती प्रकृति प्रिया।
२ फरवरी २००९ |