बलिदानी आत्माओं
की पीड़ा तुम क्या जानो
क्या पीड़ा है?
क्या हृदय में व्यथा समानी?
क्यों बहते हैं अश्रु नेत्र से?
पूछ रहे शहीद बलिदानी।
आत्मायें सब भटक रही हैं,
जिन्होंने देश पर दी कुर्बानी।
अश्रु बहाते अशफ़ाक भगतसिंह,
नयनों में आज़ाद के पानी।
सिसक सिसक कर प्रश्न पूछते,
अनगिन योद्धा और सेनानी।
और सुनाते हैं स्वप्नों की,
खंडित अकथनीय कहानी।
'तुम क्या जानो उस पीड़ा को,
हमने जो कारा में थीं झेलीं।
अपने सब सुख स्वप्न भुलाकर,
खेली निज शोणित से होली।
हम भी तो थे लाल किसी के,
अधूरे स्वप्न किसी पिता के।
स्वप्न देखकर स्वतंत्रता के,
फेरे लगा लिए चिता के।
तुम क्या जानो क्या पीड़ा है?
हमने क्या क्या कष्ट सहा है?
तुम न जानो क्या है गुलामी,
निरंकुशता की लंबी कहानी।
हृदय जर्जरित हुआ पीड़ा से,
तड़प रहा है अकथ व्यथा से।
यह तो देश नहीं दिखता है,
स्वतंत्र करा के जो सौंपा है।
शत्रु बन गए भाई भाई के,
जाति धर्म का विष फैलाके।
देश खड़ा विघटन कगार पे,
हम सब हैं असमर्थ निहारते।
हृदय दग्ध है इस चिन्ता से,
भटक रहे हैं हम प्रेतयोनि में।
कैसे हम यह तुमको दिखलाएँ?
शत्रु खड़े हैं हमारे वतन में।
न सुन पाते तुम शब्द हमारे,
कैसे अब हम यह देश सम्हालें?
यदि तुम स्वार्थ नहीं छोड़ोगे,
खंडित होंगे सब स्वप्न हमारे।
अपने तुम सब भेद भुला दो,
सभी स्वार्थों को कर दो अर्पण।
प्रेतयोनि से मुक्ति दिला दो,
कर दो आज हमारा तर्पण।''
२ फरवरी २००९ |