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हे सखि!
विस्मृत अतीत के वातायन से,
झाँक रही तुम मेरे झिलमिल।
बाबुल के प्रेमभरे आँगन में,
खेला करतीं जब हम हिल मिल।
विमुक्त फिरा करतीं चिन्ता से,
बन तितली, बगिया में खिलखिल।
पवन झकोरे देती बदरी में,
बरखा बरसा करती तिल-तिल।
पेंग लगातीं हम बैठ के झूले,
सुध-बुध अपनी रहती थी गुल।
लपक-लपक हम तुम चुनरी से,
खाती थीं, लाई गुड़ चिलबिल।
लातीं इमली, अमरुद टिकोरे,
खेला करतीं बचपन में घुलमिल।
बंधन भूली थीं जात-पांत के,
न थी घृणित राजनैतिक हलचल।
अब कहती हो जब तुम मुझसे-
'मैं अछूत, तुम हो बाम्हन कुल'-
हृदय टीसता अति पीड़ा से,
मानवता जब जाती है छल।।
२ फरवरी २००९ |