उठो पथिक
माझी छोड़ गया मझधार,
नैया भटक रही जलधारा।
उठो पथिक पतवार थामकर
बनो स्वयं अवलंब सहारा।
दिनकर के छुप जाने पर,
घिर आता जब घना अंधेरा।
निशानाथ तब आगे बढकर,
हर लेता है तिमिर घनेरा।
निशानाथ के थक जाने पर,
ज्योति दिखाता नन्हा तारा।
अपने कंधों पर बोझ उठाकर,
दूर भगाता तम अंधियारा।
दीपक भी तब ज्योति जलाकर,
आलोकित करता जग सारा।
अपने तन की आहुति देकर,
बन जाता तारों का सहारा।
माझी गया जो साथ छोडकर,
आ न सकेगा अब दोबारा।
रुदन करो न बिलख बिलख कर,
व्यर्थ करो न जीवन सारा।
अपनी पीडायें सभी भुलाकर,
दुखियों का तुम बनो सहारा।
परहित चिन्तन लक्ष्य बनाकर,
जीवन तुम जी लो दोबारा।
उठो गगन में दूर निहारो,
टिमटिम करता पहला तारा।
भटके राही को राह दिखाने,
जलता पथ में दीपक प्यारा।
उठो पथिक पतवार थामकर,
बनो स्वयं तुम अपना सहारा।
भटकी नैया पार लगाकर,
खोजो कोई नया किनारा।
२ फरवरी २००९ |