पानी उछाल के
आओ हम पतवार फेंक
कर
कुछ दिन होंलें नदी ताल के।
नाव किनारे के
खजूर से
बांध बटोरें शंख सीपियां
खुली हवा पानी से सीखें
शर्म हया की नयी रीतियां
बांचें प्रकृति पुरुष की भाषा
साथ साथ पानी उछाल के
लिख डालें फिर नये
सिरे से
रंगे हुए पन्नों को धोकर
निजी दायरों से बाहर हों
रागहीन रागों में खोकर
आमंत्रण स्वीकारें उठकर
धूप छांह सी हरी डाल के
नमस्कार पक्के
घाटों को
नमस्कार तट के वृक्षों को
हो न सकें यदि लगातार
तब जी लें सुख हम अंतराल के
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