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अनुभूति में मधु शुक्ला की रचनाएँ-

अंजुमन में-
एक तरफ
गजल कहूँ
झील नदिया खेत जंगल
बहुत मुश्किल
सोचती चिड़िया

छंदमुक्त में-
अनछुआ ही रहा
जाने कहाँ छिप गयी वो
पानी की जंग
मेरे इर्दगिर्द मेरे आसपास
यादों की चील

  पानी की जंग

जुटने लगी थी अलसुबह
फिर औरतों की भीड़
सामने की बस्ती में
म्यूनिसिपालिटी के नल के इर्द- गिर्द
हो गयी थी शुरू
उनके बीच, बेतहाशा भाग- दौड़,
धमाचौकड़ी, धक्का-मुक्की
रखने को अगली कतार में
अपने खाली बर्तनों का ढेर।

बस थोड़ी ही देर में मच जायेगा वहाँ घमासान
आते ही नल
गूँज उठेंगे वातावरण में
शोर और अपशब्दों के स्वर
हो जाएगी शुरू, फिर वही जंग
और चलती रहेगी बंद होने तक नल के
नित्य की तरह।

लुप्त हो जायेगी एक- एक कर
फिर ये औरतें अपने अपने घरों में
छोड़ कर उस कीच में टूटी हुई चूडियों के टुकड़े,
पैरों के बेतरतीब निशान और खींचकर माहौल में
एक खौफनाक सन्नाटा सारी दोपहर के लिये।

दिखतीं हैं शाम को फिर यही औरतें
बतियाती हुई आपस में
भद्दे मज़ाको पर हँसती हुई
फूहड़ हँसी।

खिड़की से टिकी हुई घंटों
तलाशती रहती हूँ मैं
आधुनिक पनघट की इन पनहारियों में
वह माधुर्य, वह मोहकता, वह चुहल, वह कोमलता
जिसका वर्णन करते हुये पड़ जाता था
कवियों को भी, शब्दों का टोटा
पर थकती नहीं थी कभी उनकी कलम।

जाने कहाँ खो गये गूँजते हुए इनमें
वो मेघ- मल्हार और कजरी के स्वर ?
प्रवाहित नहीं होती इनके अंदर से अब
सौन्दर्य की वो अल्हड नदी
सूख चुके हैं सारे रस स्रोत
दरक गयी है उमंगों की गागर
बूँद- बूँद को मोहताज
रेगिस्तान जिंदगी में
उगी हुई
संघर्षो की नागफनियों से
तार- तार हो चुकी इच्छाओं की चूनर
सहेज नहीं पाती है इनका स्त्रीत्व।

त्याग कर सारा शील- संकोच
लड़ती हैं ये औरतें
पानी के लिये यहाँ नित्य नयी जंग।

१ जून २०२२

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