अनुभूति में
मधु शुक्ला की रचनाएँ-
अंजुमन में-
एक तरफ
गजल कहूँ
झील नदिया खेत जंगल
बहुत मुश्किल
सोचती चिड़िया
छंदमुक्त में-
अनछुआ ही रहा
जाने कहाँ छिप गयी वो
पानी की जंग
मेरे इर्दगिर्द मेरे आसपास
यादों की चील
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जाने कहाँ छिप
गयी वो
याद आ जाती है
अक्सर मुझको
'वह'
दुबली- पतली, साँवली सी
चंचल, फुर्तीली लड़की
भागती हुई गिलहरी के पीछे
पकड़ने को उसकी झबरीली पूँछ
रह जाती थी जो हर बार
आते-आते उसके नन्हें हाथों की गिरफ्त से
बस... बस कुछ ही दूर।
पर बिना किसी थकान या निराशा के
दोहराती रहती थी, 'वह'
अपना क्रम यों ही
होकर बेफ़िक्र,
अपनी कुहनियों की खरोंच से
फ्राक में लगी हुई धूल मिट्टी से
और खुलकर लटक रहे,
चोटी के फीतों से
तिरती रहती थी 'वह' हवा की तरह
यहाँ-वहाँ, ---- इधर- उधर------
झूलती हुई कभी पेड़ों की डालियों से
तोड़ती हुई आम, जामुन और निबोरियों को
बीनती हुई शंख और सीपियाँ
नदी की तपती रेत से
और कभी- कभी
झाँकती हुई चिडियों के घोंसलों में
चुपचाप
सबसे बचाकर नजर
वह बेख़बर
इस अनचीन्ही दुनिया से
खेलते हुए, छुपा-छुपी का खेल
कहते हुए पकडों-पकडों!
छुओ मुझे! ढूँढ़ो मुझे!
देखते ही देखते, जाने कहाँ छुप गयी 'वो'
छोड़कर अपने अधबने घरौंदे
गुड्डे-गुडियों के ये अवशेष
शंख और सीपियों के ढेर
समय की रेत पर नन्ही उंगलियों के निशान
न जाने कहाँ ओझल हो गयी 'वो'
कहते हुये
पकड़ो मुझे--- छुओ मुझे---- ढूँढो मुझे------
१ जून २०२२ |