अनुभूति में
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ठगे से रह गए
सपनों के बन
आँखों में सिमट आया
किसी का सम्मोहन
पल पल चुभते हैं
शाम के साए
आस में जीते हैं
शायद कोई आए
दे जाए जो कहीं कोई थिरकन
गीत गीत हो चली
अनुबन्धों की स्मृति
तन मन सहरा गई
हवा कोई बासन्ती
आमन्त्रण दे गए किसी के नयन
बैरागी हो चली थी
धूप बावरी
अनसुनी कर रही थी
मौसम की वल्लरी
ऋतुमती हो गई देह की तपन
२१ फरवरी २०११
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