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मन की विपदा

सच-सच हमको बतलाना जी
मन को कहाँ धरें

नइया डोल रही है तन की
सागर गहरा है
संयम की घाटी में नटखट
यौवन ठहरा है
बादल की बाहों में हों
या मरुथल संग मरें

मादक मौसम सर्द हवा कुछ
पल की थाती है
पलक झपकते दृश्य बदलता
बुझती बाती है
बरसों से केवल सन्नाटे
मन का शून्य भरें।

तुमको पाकर सीख लिया था
पीड़ा को पीना
हँसते हँसते कड़वाहट को
अंतर में सीना
प्रेम डगर के अनुयायी क्या
पीकर ज़हर तरें

बिना तेल मन बाती जैसा
जलता रहता है
सूली ऊपर सेज पिया की
रो - रो कहता है
प्रेम यज्ञ में अभिलाषाएँ
समिधा संग बरें

१६ अप्रैल २००५

 

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