अनुभूति में
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दिन कपूर बन
दिन कपूर बन जल
जाते हैं।
अब तो आँखों को सपने भी
जाने कैसे छल
जाते हैं।
अगवानी में बैठे-बैठे
कितनी ऋतुएँ बासी हो लीं।
दिन गिनते
अँगुली की पोरें
सारे जग की हाँसी हो लीं।
विकल अश्रु की विरल धार से
कई हिमालय गल
जाते हैं।
धूप मुंडेरे जमुहाई ले
जाने किसको ताक रही है?
कलम दवात
लिए हाथों में
आखर-आखर टांक रही है।
कोई जाकर प्रिय से पूछे
शुभ प्रसंग क्यों टल
जाते हैं।
२१ फरवरी २०११
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