अनुभूति में
कल्पना मनोरमा 'कल्प'
की रचनाएँ-
छंदमुक्त में-
कविता
तुम्हारे बाद
तुलसी के बीज
घोंसले
लौटती हूँ
दोहों
में-
गंगा की अवतार माँ
गीतों में-
दीपक को तम में
बादल आया गाँव में
बोल दिये कानों में
मत बाँधो दरिया का पानी
मन से मन का मिलना
संकलन
में-
देवदार-
देवदार के झरोखे से
रक्षाबंधन-
रीत प्रीत की
शिरीष-
वन शिरीष मुस्काए
शुभ दीपावली-
दीप बहारों के
होली है-
चलो वसंत मनाएँ
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तुलसी के बीज
अंतिम विदाई में देकर मुझे
तुलसी के बीज
तुम क्या कहना चाहती थीं
माँ !
नहीं जानती
वे बीज प्रतीक हैं, किस बात के
इसका भी नहीं है
अनुमान
किन्तु जी चाहता है
कि-छींट दूँ
तुम्हारे दिए गए आशीर्वाद को
सभी जगह
जहाँ न हो पाबन्दी
उनके उगने और लहलहाने पर
मैं जानती हूँ,
तुलसी की मंजरियाँ तुम्हें
प्रिय थीं
गुलाब से भी बढ़कर
सुना है बीज कभी भी
मरते नहीं
उपयुक्त समय पाकर वे
उग ही आते हैं
तुम भी उग आओगी कभी
मेरी गोदी में
ये आशा है
वैसे भी माँ
हर दिन तुम मेरे मन के आँगन में
उगती और खिलती हो
तुलसी की तरह
तुम्हारे इसी उगने-खिलने में
बन रही हूँ मैं !
एक वृक्ष
जैसा कि- तुमने चाहा था ।
१
सितंबर २०२२
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